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Home -- Hindi -- Romans - 073 (How those who are Strong in Faith ought to Behave)
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रोमियो – प्रभु हमारी धार्मिकता है|
पवित्र शास्त्र में लिखित रोमियों के नाम पौलुस प्रेरित की पत्री पर आधारित पाठ्यक्रम
भाग 3 - परमेश्वर की धार्मिकता मसीह के अनुयायियों के जीवन में दिखाई देती है। (रोमियो 12:1 - 15:13)

10. विश्वास में बलवान लोगों को अप्रत्याशित समस्याओं की ओर कैसे व्यवहार करना चाहिए (रोमियो 15:1-5)


रोमियो 15:1-5
1 निदान हम बलवानोंको चाहिए, कि निर्बलोंकी निर्बलताओं को सहें; न कि अपने आप को प्रसन्न करें। 2 हम में से हर एक अपने पड़ोसी को उस की भलाई के लिये सुधारने के निमित्त प्रसन्न करे। 3 क्‍योंकि मसीह ने अपने आप को प्रसन्न नहीं किया, पर जैसा लिखा है, कि तेरे निन्‍दकोंकी निन्‍दा मुझ पर आ पड़ी। 4 जितनी बातें पहिले से लिखी गईं, वे हमारी ही शिक्षा के लिये लिखी गईं हैं कि हम धीरज और पवित्र शास्‍त्र की शान्‍ति के द्वारा आशा रखें। 5 और धीरज, और शान्‍ति का दाता परमेश्वर तुम्हें यह बरदान दे, कि मसीह यीशु के अनुसार आपस में एक मन रहो।

पौलुस खाने और पिने से सबंधित रीतिरिवाजों को भली भांति जानते थे, जोकि बहुत अंदर तक जड़ पकड़ चुकी थी| आपने उनका जो बलवान और कानून से स्वतंत्र किये गये थे लोगों का सामना किया, और स्वयं को उनमे से ही एक माना था| परंतु शीघ्र ही आपने अपनी स्वतंत्रता को सीमित किया था, यह कहकर कि बलवान और परिपक्व लोगों को धर्मपरिवर्तकों की कमजोरियों को सहन करना चाहिए तब तक जब तक वे मसीह में विश्वास करते है| हमें वैसे नहीं जीना चाहिए जिससे हमें खुशी मिले परन्तु हमें वैसे जीना चाहिए जिससे धर्म परिवर्तकों को खुशी मिले, जो कि सभी बातों में बहुत अधिक आश्वस्त नहीं है| उन लोगों के अच्छे और आध्यात्मिक सुधार के लिए ऐसा करना होगा क्योंकि अपने आनंद और इच्छाओं में मगन रहने की अपेक्षा अन्य लोगों का आध्यात्मिक सुधार अति महत्वपूर्ण है|

इस सिद्धांत ने कलीसिया में सभी ओर स्वार्थीपन की इस संकरी आत्मा को तोड़ दिया| हमें अपने सपनों के अनुसार अपनी जिंदगी, अपने कार्यों, और अपने सुअवसरों की योजना नहीं करनी चाहिए, परंतु यीशु और विश्वास में कमजोर लोगों की सेवा करनी चाहिए, क्योंकि हमारी सोच का केन्द्र बिंदु “मै”, नहीं परंतु यीशु और उनकी कलीसिया है| यीशु स्वयं के लिए नहीं जिये, परन्तु उन्होंने अपनी महिमा उंडेल दी थी और एक मनुष्य बने| उन्होंने दोषों, अपमानों और संसार में सभी को बचाने के लिए पीडाओं को सहा, और अंत में एक अपराधी के समान घृणित माने गये थे, यहाँ तक कि अपराधियों को बचाने और उनको सुधारने के लिए, अपने प्राण त्याग दिये थे|

मसीहने पवित्र बाईबिल के अनुसार जीवन जिया था एक दीनता, विनम्रता और विशेषरूप से सहनशीलता का जीवन| पुराने नियम की पुस्तकों का मार्गदर्शन और शक्ति वे अपने मंत्रियों में ले गये थे| वह जो कलीसिया में सेवा करना चाहता है या उन लोगों में से है जिन्होंने मसीह को अस्वीकार कर दिया था, को परमेश्वर के वचन की गहराई तक जाना चाहिए वैसे भी वह अपनी सेवा के आनंद और शक्ति को खो देगा|

पौलुस ने इन विषयों पर अपनी लम्बी शोध को इस संकेत के साथ समाप्त किया था कि परमेश्वर सहनशीलता और सांत्वना देने वाला परमेश्वर है (रोमियों 15:5)| सृष्टिकर्ता को स्वयं इन स्वार्थी, हठी मनुष्यों को सहन करने के लिए एक अत्यधिक धैर्यता की आवश्यकता है| उनको सिर्फ अपने पुत्र यीशु में सुख मिला, यीशु जिनके साथ उनका आनंद रहता है| इस संकेत द्वारा पौलुस ने रोम में प्रार्थनाओं का धैर्यता एवं सांत्वना की ओर मार्गदर्शन किया था ताकि आप कलीसिया को एकता दे पाये जो विश्वासियों से नहीं, परन्तु केवल यीशु से आता है, क्योंकि केवल मसीह में कलीसिया के विचार एकत्रित होते थे| यीशु से सीधे रुपसे आनेवाली कलीसिया के आलावा किसी भी कलीसिया में एकता या सफलता नहीं है| तों सभी भागीदारियो ने एकसाथ प्रशंसा में, निश्चिन्तता से यह सीखना चाहिए कि अनंत, न्यायधीश, और सृष्टि के सृष्टिकर्ता हमारे प्रभु यीशु मसीह के पिता है|

अकेले यीशु ही थे जिन्होंने अपनी पीडाओं और मृत्यु द्वारा हमारी संधि पवित्र परमेश्वर से कराई थी| वे हमारे लिए, अपनी मृत्यु से पुनरुत्थान और अपने स्वर्गारोहण के द्वारा हमारा अंगीकरण एवं दूसरे आध्यात्मिक जन्म को लेकर आये ताकि हम आनंद के हक़दार हो पाये, और हमारे यीशु मसीह के पिता की हमारे दयालु पिता के रूप में प्रशंसा कर पाये| जैसे उनमे और उनके पुत्र में एक परिपूर्ण, आध्यात्मिक एकता है, इसी प्रकार से कलीसिया के सदस्यों ने अपने आप को यीशु मसीह के साथ एक अविच्छेदीय एकता में बांध लेना चाहिए|

प्रार्थना: ओ स्वर्गीय पिता, हम आपकी अतिरंजना करते है क्योंकि हमारे प्रभु मसीह ने आपका पितृत्व हमारे सामने प्रकट किया और हमें आपके पवित्र आत्मा में आपके प्रेम की एकता में बांध दिया| ऐसा होने दीजिए प्रभु कि हमारी कलीसियाओं में विश्वासियों में आपस में किसी भी सबंध में मतभेदों के स्थान पर यह प्रेम एक परिपूर्ण आध्यात्मिक एकता की पूर्ति कर सके|

प्रश्न:

91. रोमियों के वचन 15:5-6 का अर्थ क्या है?

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